Wednesday, November 12, 2014


31. दुर्जनम् प्रथमं वन्दे, सज्जनं तदनन्तरम्। मुख प्रक्षालनत् पूर्वे गुदा प्रक्षालनम् यथा ॥

First attend the people who are not so good, the the better ones. Like in the morning we wash our face after washing our rear ends :)

पहले कुटिल व्यक्तियों को प्रणाम करना चाहिये, सज्जनों को उसके बाद; जैसे मुँह धोने से पहले, गुदा धोयी जाती है ।



 न भूतपूर्व न कदापि वार्ता हेम्नः कुरंगो न कदापि दृष्टः । तथापि तृष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीत बुद्धिः ॥ 

आयुशः क्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते |
नीयते स वृथा येन प्रमादः सुमहानहो ||
Even a single second in life cannot be obtained by alll precious jewels. Hence spending it without purpose is a great mistake.

हरिर्दाता हरिर्भोक्ता हरिरन्नं प्रजापतिः |
हरिः सर्वशरीरस्थो भुङ्क्ते भोजयते हरिः ||

Lord Hari is the Giver. Lord Hari is the enjoyer. Hari is the
food and the Creator. He, while residing in all beings, is the
one who feeds himself as well as the body.

आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः ।
परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति ।।

http://www.orkut.com/Main#CommMsgs?cmm=433042&tid=2484605127238930237

http://sanskritdocuments.org/all_sa/allshlokawmean_sa.html

यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् ?
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ।।


मीनः स्नानरतः फणी पवनभुक्त मेषस्तु पर्णाश्ने
निराशी खलु चातकः प्रतिदिनं शेते बिले मूषकः ।
भस्मोध्द्वलनतत्परो ननु खरो ध्यानाधिसरो बकः
सर्वे किं न हि यान्ति मोक्षपदवी भक्तिप्रधानं तपः ॥
मीन (मछली) नित्य जल में स्नान करती है, साँप वायु भक्षण करके रहता है; चातक तृषित रहता है, चूहा बिल में रहता है, गधा धूल में भस्मलेपन करता है; बगुला आँखें मूंदके बैठ ध्यान करता है; पर इन में से किसी को भी मोक्ष नहीं मिलता, क्यों कि तप में प्रधान "भक्ति" है ।

आपूर्यमाणमचलप्रातिष्ठं समुद्रमाप: प्राविशन्ति यद्वत् |
तद्वत् कामा यं प्राविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ll
जो व्यक्ती समय समय पर मन में उत्पन्न हुइ आकांशाओं से अविचलित रहता है
और
जैसे अनेक नदीयाें के सागर में मिलने पर भी सागर का जल नहीं बढता एवं वह शांत ही रहता है, 
ऐसे ही व्यक्ती सुखी होते हैं जो हर परिस्थिति में शांत रहते हैं 
(गीता)

यदि वहसि त्रिदण्डं नग्रमुंडं जटां वा
यदि वससि गुहायां पर्वताग्रे शिलायाम् ।
यदि पठसि पुराणं वेदसिध्धान्ततत्वम्
यदि ह्रदयमशुध्दं सर्वमेतन्न किज्चित् ॥ 

आदमी त्रिदंड धारण करे, सर पे मुंडन करे, जटा बढाये, गुफा में रहे या पर्वत की चोटी पर, और वेद पुराण व्र सिद्धान्त के तत्व का अभ्यास करे, लेकिन जो ह्रदय साफ़ न हो तो ये सब बेकार है !


नमोभूषा पूषा कमलवनभूषा मधुकरो
वचोभूषा सत्यं वरविभवभूषा वितरणम् ।
मनोभूषा मैत्री मधुसमयभूषा मनसिजः
सदो भूषा सूक्तिः सकलगुणभूषा च विनयः ॥

सूर्य आकाश का भूषण है, भौंरा कमलवन का, सत्य वाणी का, 
दान श्रेष्ठ वैभव का, मैत्री मन का, कामदेव वसंत का, 
और सद्वचन सभा का भूषण है । 
पर विनय तो सब गुणों का भूषण है ।


मा प्र गाम पथो वयम्। (ऋग्वेद 10/57/1) 

हम राह से बेराह न हों।


बार बार बैल कौ निपट ऊँचो नाद सुनि,
हुंकरत बाघ बिरुझानो रसरेला में |
भूधर भनत ताकी बास पाय शोर करि,
कुत्ता कोतवाल को बगानो बगमेला में |
फुंकरत मूषक को दूषक भुजंग तासों,
जंग करिबेको झुक्यो मोर हधेला में |
आपस में पारषद कहत पुकारी कछु
रारि सी मची है त्रिपुरारि के तबेला में ||

मूसे पर सांप राखै, सांप पर मोर राखै, बैल पर सिंह राखै, वाकै कहा भीती है |
पूतनिकों भूत राखै, भूत कों बिभूति राखै, छमुख कों गजमुख यहै बड़ी नीति है |
कामपर बाम राखै, बिषकों पीयूष राखै, आग पर पानी राखै सोई जग जीती है |
'देविदास' देखौ ज्ञानी संकर की साबधानी, सब बिधि लायक पै राखै राजनीति है |अंग में लगाते हैं सदा से चिता की भस्म,
फिर भी शिव परम पवित्र कहलाते हैं |
गोद में बिठाये गिरिजा को रहते हैं सदा,
फिर भी शिव अखंड योगिराज कहलाते हैं |
घर नहीं धन नहीं, अन्न और भूषण नहीं,
फिर भी शिव महादानी कहलाते हैं |
दिखत भयंकर, पर नाम शिव शंकर,
नाश करते हैं तो भी नाथ कहलाते हैं |


भभूत लगावत शंकर को, अहिलोचन मध्य परौ झरि कै।
अहि की फुँफकार लगी शशि को, तब अंमृत बूंद गिरौ चिरि कै।
तेहि ठौर रहे मृगराज तुचाधर, गर्जत भे वे चले उठि कै।
सुरभी-सुत वाहन भाग चले, तब गौरि हँसीं मुख आँचल दै॥

अर्थात् (प्रातः स्नान के पश्चात्) पार्वती जी भगवान शंकर के मस्तक पर भभूत लगा रही थीं तब थोड़ा सा भभूत झड़ कर शिव जी के वक्ष पर लिपटे हुये साँप की आँखों में गिरा। (आँख में भभूत गिरने से साँप फुँफकारा और उसकी) फुँफकार शंकर जी के माथे पर स्थित चन्द्रमा को लगी (जिसके कारण चन्द्रमा काँप गया तथा उसके काँपने के कारण उसके भीतर से) अमृत की बूँद छलक कर गिरी। वहाँ पर (शंकर जी की आसनी) जो बाघम्बर था, वह (अमृत बूंद के प्रताप से जीवित होकर) उठ कर गर्जना करते हुये चलने लगा। सिंह की गर्जना सुनकर गाय का पुत्र - बैल, जो शिव जी का वाहन है, भागने लगा तब गौरी जी मुँह में आँचल रख कर हँसने लगीं मानो शिव जी से प्रतिहास कर रही हों कि देखो मेरे वाहन (पार्वती का एक रूप दुर्गा का है तथा दुर्गा का वाहन सिंह है) से डर कर आपका वाहन कैसे भाग रहा है।


गुणवन्त: क्लिश्यन्ते प्रायेण भवन्ति निर्गुणा: सुखिन: |
बन्धनमायान्ति शुका यथेष्टसंचारिण: काका: ||

अर्थातः 

गुणवान व्यक्ति को बहुतः कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है, 
इससे विपरीत अवगुणी व्यक्ति आराम की ज़िन्दगी व्यतीत करता है । जैसे तोता अपने गुणों के कारण पिंजरे में क़ैद होता है पर कव्वा स्वछन्द उड़ता रहता है । 


विद्वानेव विजानाति
विद्वज्जनपरिश्रमम्
न हि वन्ध्या विजानाति 
गुर्वीं प्रसववेदनां


दुर्जन: सज्जनो भूयात सज्जन: शांतिमाप्नुयात्।
शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥

दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांति बनें। शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों को मुक्त करें।


रथस्यैकं चक्रं भुजगयमिताः सप्त तुरगाः
निरालम्बो मार्गश्चरणरहितः सारथिरपि ।
रविर्गच्छत्यन्तं प्रतिदिनमपारस्य नभसः
क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे ॥

सूर्य के रथ को एक ही पैया है, साँप की लगाम से संयमित किये हुए सात घोडे हैं, आलंबनरहित मार्ग है, बिना पैर का सारथि अरुण है; साधनों की इतनी मर्यादा होने पर भी सूर्य रोज सारे आकाश में घूमता है, क्यों कि महापुरुषों की कार्यसिद्धि, (व्यक्ति के) सत्त्व पर निर्भर करती है, न कि साधनों पर ।

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