पिछले ब्लॉग के अंक में हमने देखा कि कैसे संस्कृत में तकनीकी ग्रंथों में अक्षरों का प्रयोग करके अंकों/ संख्याओं को प्रदर्शित किया जाता था |
इस अंक में देखते हैं कि और कौन सा तरीका था संस्कृत तकनीकी ग्रंथों में अंकों/ संख्याओं को दिखाने का :
2. शब्दों से अंक-ज्ञान - इस परम्परा में श्रुति, पुराण कथाओं और प्रचलित लोक प्रतीकों का उपयोग करके अंकों और संख्याओं का अनुमान बताया जाता था | जैसे 1 अंक को दिखाना है तो चन्द्रमा या भूमि शब्द का या इनके पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि चन्द्रमा 1 है और पृथ्वी भी एक है |
मान लीजिये अंक 5 को दिखाना है तो तत्त्व जो की पांच हैं या महाभूत जो कि पांच हैं उनका प्रयोग पद्य में किया जाएगा | संख्या 11 लिखनी है तो रूद्र, ईश (प्राचीन काल में ईश के रूप में रूद्र ही प्रसिद्ध थे) शब्द का प्रयोग करेंगे क्योंकि एकादश (11) रूद्र प्रसिद्द हैं | 3 लिखना है तो गुण (सत, रज, तम) का प्रयोग या अग्नि (अग्नि तीन प्रकार की या तीन मुख वाली कहाती है) का या राम (परशुराम, दशरथनंदन राम और बलराम) का प्रयोग प्रचलित था |
अब एक उदहारण देखते हैं कि यह कैसे प्रयुक्त होता है -
मुहूर्त, शुभ-अशुभ काल के ज्ञान के लिए प्रसिद्द ग्रन्थ मुहूर्त चिंतामणि में एक श्लोक है (शुभाशुभ प्रकरण, श्लोक -8) :
इसमें मात्र संख्याएं ही लिखी हैं | सन्दर्भ बता दूं कि इस श्लोक में वार और तिथियों के संयोग से तीन प्रकार की तिथियों को बताया गया है - दग्ध, विष और हुताशन
पहले दग्ध को लेते हैं जिसके लिए श्लोकांश है - सूर्येशपञ्चाग्निरसाष्टनन्दा
अन्वय - सूर्य + ईश + पञ्च + अग्नि + रस + अष्ट + नन्द
तो कुछ प्रसिद्ध शब्दों के संख्या-अंक प्रयोग बताते चलें फिर उदाहरण देंगे -
इन सभी प्रयोगों की पीछे की कहानी या उनके नाम बताना असंभव नहीं तो यहाँ कठिन अवश्य है | इसके लिए पुरानी कुछ पुस्तकें भी हैं, मेरे स्वयं के पुस्तकालय में ऐसी एक 80-90 वर्ष पुरानी पुस्तक है जिसमें मात्र संख्या और उस से सम्बंधित शब्द और उनके नाम का उल्लेख है |
अब कुछ उदाहरण पुनः देखते हैं -
मुहूर्त चिंतामणि में ही एक जगह नक्षत्रों में ताराओं की संख्या बताते हुए एक श्लोक है (नक्षत्र प्रकरण, श्लोक-58)
अन्वय - त्रि (3) + त्रय(3) + अङ्ग(6) + पञ्च(5) +अग्नि(3) + कु(1) + वेद(4) + वह्नय(3); शर(5) + ईषु(5) + नेत्र(2) + अश्वि(2) + शर(5) + इन्दु(1) + भू(1) + कृताः(4) | वेद(4) + अग्नि(3) + रुद्र(11) + अश्वि(2) + यम(2) + अग्नि(3) + वह्नि(3); अब्धयः(4) + शतं(100) + द्वि(2) + द्वि(2) + रदाः(32) + भ + तारकाः ||
यहाँ थोड़ी संस्कृत बता दूं भतारकाः का अर्थ है भ (नक्षत्रों) के तारे | तो यदि नक्षत्रों में तारे अश्विनी नक्षत्र से गिनें तो इतने तारे प्रत्येक नक्षत्र में होते हैं |
अब एक उदाहरण गणितीय सूत्र का लेते हैं -
मुहूर्त चिंतामणि (वास्तु प्रकरण, श्लोक 3) में गृहपिण्डायन (House Plot size determination) की गणना का सूत्र इस श्लोक में है -
अन्वयार्थ :
एकोनितेइष्टर्क्ष = इष्ट नक्षत्र की संख्या में से एक निकाल(घटा) कर
हता = गुणा
द्वितिथ्यो = 152 (द्वि=2, तिथि=15 फिर अंकानाम् वामतो गतिः से पहले तिथि(15) फिर द्वि (2)) = 152
रुपोनितेष्टाय हते = इष्ट आय में से एक निकाल(घटा) कर गुणा
इन्दुनागैः = इन्दु (1), नागैः (8) फिर अंकानाम् वामतो गतिः से पहले नाग (8) फिर इंदु (1) = 81
युक्ता = जोड़ो
घनैः = 17
विभक्ता = भाग दो
भूपाश्विभिः = भूप (16), अश्वि (2) फिर अंकानाम् वामतो गतिः से पहले अश्वि(2) फिर भूप (16) = 216
शेषमितो हि पिण्डः = शेष बचा हुआ ही पिण्ड (का क्षेत्रफल) है |
तो सूत्र ये बना -
इसी प्रकार अन्यान्य ग्रंथों में गणितीय सूत्र या सख्याएं प्रतीक रूप में वर्णित हैं | सूर्य के सात घोड़े सात रंग होंगे इस कल्पना को निरी महामूर्खता मानना क्या अन्याय नहीं है किसी मान्यता के साथ ?
अब सही बताएं क्या आपने किसी श्लोक के बारे में कल्पना की थी कि ये कोई गणितीय सूत्र होगा और ऐसे भी लिखा जा सकता है ? अब यदि आपको कोई ज्योतिष/ प्राचीन विद्याओं का जानकार इन बातों की जानकारी रखने वाला मिले तो उसे निपट गंवार (चूतिया) न समझें और न मानें ऐसी मेरी प्रार्थना है |
मेरे पिताजी की एक कविता के बोल हैं -
सिर्फ लिफाफा देख कर ख़त का मजमूँ
जानने की तहजीब,
एक दिन में नहीं आती,
सालों ख़त बांचने पड़ते हैं........
आज के लिए इतना पर्याप्त है :) |
इत्यलम् !
-- स्व. डॉ. पं. अशोकशर्मात्मजअलंकार
इस अंक में देखते हैं कि और कौन सा तरीका था संस्कृत तकनीकी ग्रंथों में अंकों/ संख्याओं को दिखाने का :
2. शब्दों से अंक-ज्ञान - इस परम्परा में श्रुति, पुराण कथाओं और प्रचलित लोक प्रतीकों का उपयोग करके अंकों और संख्याओं का अनुमान बताया जाता था | जैसे 1 अंक को दिखाना है तो चन्द्रमा या भूमि शब्द का या इनके पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि चन्द्रमा 1 है और पृथ्वी भी एक है |
मान लीजिये अंक 5 को दिखाना है तो तत्त्व जो की पांच हैं या महाभूत जो कि पांच हैं उनका प्रयोग पद्य में किया जाएगा | संख्या 11 लिखनी है तो रूद्र, ईश (प्राचीन काल में ईश के रूप में रूद्र ही प्रसिद्ध थे) शब्द का प्रयोग करेंगे क्योंकि एकादश (11) रूद्र प्रसिद्द हैं | 3 लिखना है तो गुण (सत, रज, तम) का प्रयोग या अग्नि (अग्नि तीन प्रकार की या तीन मुख वाली कहाती है) का या राम (परशुराम, दशरथनंदन राम और बलराम) का प्रयोग प्रचलित था |
अब एक उदहारण देखते हैं कि यह कैसे प्रयुक्त होता है -
मुहूर्त, शुभ-अशुभ काल के ज्ञान के लिए प्रसिद्द ग्रन्थ मुहूर्त चिंतामणि में एक श्लोक है (शुभाशुभ प्रकरण, श्लोक -8) :
सूर्येशपञ्चाग्निरसाष्टनन्दा, वेदाङ्गसप्ताश्विगजान्कशैलाः |
सूर्याङ्ग सप्तोरगगोदिगीशा, दग्धा विषाख्याश्च हुताशनाश्च || 8 ||
सूर्यादिवारे तिथयो भवन्ति.......... ............................................|| 9 ||
इसमें मात्र संख्याएं ही लिखी हैं | सन्दर्भ बता दूं कि इस श्लोक में वार और तिथियों के संयोग से तीन प्रकार की तिथियों को बताया गया है - दग्ध, विष और हुताशन
पहले दग्ध को लेते हैं जिसके लिए श्लोकांश है - सूर्येशपञ्चाग्निरसाष्टनन्दा
अन्वय - सूर्य + ईश + पञ्च + अग्नि + रस + अष्ट + नन्द
- सूर्य - सूर्य 12 हैं (12 राशियों में भ्रमण करने वाले सूर्य का नाम प्रत्येक राशि में अलग-अलग है), तो इस से द्वादशी तिथि पता लगी | (reference के लिए सूर्य, भानु, रवि, हिरण्यगर्भ, भास्कर, आदित्य, मरीचि, खग, मित्र, पूषा, सविता, अर्क)
- ईश - जैसा कि ऊपर बताया, ईश को रूद्र के अर्थ में लेने पर ग्यारह रुद्रों से एकादशी तिथि का होना सिद्ध हुआ |
- पञ्च - इस से पांच अंक का बोध होता ही है | तो पञ्चमी तिथि पता लगी |
- अग्नि - इस से 3 अंक का भान होता है, क्योंकि अग्नि तीन जिव्हा वाली बताई गयी है | तो तृतीया का पता लगा |
- रस - स्वाद 6 हैं, जिन्हें हम जीभ से पहचान सकते हैं तो इस से षष्ठी तिथि का पता लगा - मधुर(मीठा), अम्ल (खट्टा), लवण (नमकीन), तिक्त (तीखा), कटु (कड़वा) और कषाय (कसैला)
- अष्ट - सीधे-सीधे आठ के अंक को बताता है | अतः अष्टमी तिथि पता लगी |
- नन्द - नन्द वंश के नौ राजा प्रसिद्ध हैं अतः नवमी का भान हुआ |
और सूर्यादिवारे तिथयो भवन्ति से पता लगा की गिनने का क्रम सूर्यवार (रविवार) से होगा | अतः दग्ध तिथियाँ ये हैं - रविवार को द्वादशी, सोमवार को एकादशी, मंगलवार को पञ्चमी, बुधवार को तृतीया, गुरूवार को षष्ठी, शुक्रवार को अष्टमी और शनिवार को नवमी |
इसी प्रकार अन्य दोनों श्लोकांशों से विष और हुताशन तिथियों का पता लग सकता है अपने आप प्रयत्न करें हाँ पौराणिक कथाओं, मान्यताओं का ज्ञान इसके लिए अत्यावश्यक है |
इस प्रकार के श्लोकों के अर्थ में भी वही अङ्कानां वामतो गतिः याद रखना है |
तो कुछ प्रसिद्ध शब्दों के संख्या-अंक प्रयोग बताते चलें फिर उदाहरण देंगे -
अंक/ संख्या
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शब्द
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0
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खं, भू, आकाश, अभ्र (आकाश)
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1
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भू, चन्द्र, कु, शशि
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2
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कर (हाथ), अश्विनीकुमार, नेत्र, यम, युग्म, दृशः
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3
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अग्नि, वह्नि, गुण, अनल, राम
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4
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वेद, कृताः, सागर, अब्धि
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5
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शरः, बाण, सुतः, सायकः
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6
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रस, अंग, तर्क, दर्शन
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7
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अश्व, अद्रिः, शैलः
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8
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गजः, वसु, उरगः, नाग
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9
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अंक, गौ
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10
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दिक् (दिशा), आशा
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11
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शिव, रूद्र, ईशः, उग्रः
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12
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आदित्यः, भानु, सूर्य
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13
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विश्वः
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14
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मनु, भूत, इन्द्रः, शक्रः
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15
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तिथि, पक्ष
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16
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नृपः, अष्टि
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20
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नखाः
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21
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प्रकृतिः
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24
|
जिनः
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25
|
तत्वं
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27
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नक्षत्र, ऋक्षं
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30
|
अमा
|
32
|
रदाः, दशना, दन्ताः
|
अब कुछ उदाहरण पुनः देखते हैं -
मुहूर्त चिंतामणि में ही एक जगह नक्षत्रों में ताराओं की संख्या बताते हुए एक श्लोक है (नक्षत्र प्रकरण, श्लोक-58)
त्रित्र्यङ्गपञ्चाग्निकुवेदवह्नयः शरेषुनेत्राश्विशरेन्दुभूकृताः |
वेदाग्निरुद्राश्वियमाग्निवह्नयोSब्धयः शतंद्विरदाः भतारकाः ||
अन्वय - त्रि (3) + त्रय(3) + अङ्ग(6) + पञ्च(5) +अग्नि(3) + कु(1) + वेद(4) + वह्नय(3); शर(5) + ईषु(5) + नेत्र(2) + अश्वि(2) + शर(5) + इन्दु(1) + भू(1) + कृताः(4) | वेद(4) + अग्नि(3) + रुद्र(11) + अश्वि(2) + यम(2) + अग्नि(3) + वह्नि(3); अब्धयः(4) + शतं(100) + द्वि(2) + द्वि(2) + रदाः(32) + भ + तारकाः ||
यहाँ थोड़ी संस्कृत बता दूं भतारकाः का अर्थ है भ (नक्षत्रों) के तारे | तो यदि नक्षत्रों में तारे अश्विनी नक्षत्र से गिनें तो इतने तारे प्रत्येक नक्षत्र में होते हैं |
अब एक उदाहरण गणितीय सूत्र का लेते हैं -
मुहूर्त चिंतामणि (वास्तु प्रकरण, श्लोक 3) में गृहपिण्डायन (House Plot size determination) की गणना का सूत्र इस श्लोक में है -
एकोनितेष्टर्क्षहता द्वितिथ्यो
रुपोनितेष्टाय हतेन्दुनागैः |
युक्ता घनैश्चापि युता विभक्ता
भूपाश्विभिः शेषमितो हि पिण्डः ||
अन्वयार्थ :
एकोनितेइष्टर्क्ष = इष्ट नक्षत्र की संख्या में से एक निकाल(घटा) कर
हता = गुणा
द्वितिथ्यो = 152 (द्वि=2, तिथि=15 फिर अंकानाम् वामतो गतिः से पहले तिथि(15) फिर द्वि (2)) = 152
रुपोनितेष्टाय हते = इष्ट आय में से एक निकाल(घटा) कर गुणा
इन्दुनागैः = इन्दु (1), नागैः (8) फिर अंकानाम् वामतो गतिः से पहले नाग (8) फिर इंदु (1) = 81
युक्ता = जोड़ो
घनैः = 17
विभक्ता = भाग दो
भूपाश्विभिः = भूप (16), अश्वि (2) फिर अंकानाम् वामतो गतिः से पहले अश्वि(2) फिर भूप (16) = 216
शेषमितो हि पिण्डः = शेष बचा हुआ ही पिण्ड (का क्षेत्रफल) है |
तो सूत्र ये बना -
पिण्ड मान = [{(इष्ट नक्षत्र संख्या - 1) X 152} +{(इष्ट आय -1) X 81} + 17] / 216
इसी प्रकार अन्यान्य ग्रंथों में गणितीय सूत्र या सख्याएं प्रतीक रूप में वर्णित हैं | सूर्य के सात घोड़े सात रंग होंगे इस कल्पना को निरी महामूर्खता मानना क्या अन्याय नहीं है किसी मान्यता के साथ ?
अब सही बताएं क्या आपने किसी श्लोक के बारे में कल्पना की थी कि ये कोई गणितीय सूत्र होगा और ऐसे भी लिखा जा सकता है ? अब यदि आपको कोई ज्योतिष/ प्राचीन विद्याओं का जानकार इन बातों की जानकारी रखने वाला मिले तो उसे निपट गंवार (चूतिया) न समझें और न मानें ऐसी मेरी प्रार्थना है |
मेरे पिताजी की एक कविता के बोल हैं -
सिर्फ लिफाफा देख कर ख़त का मजमूँ
जानने की तहजीब,
एक दिन में नहीं आती,
सालों ख़त बांचने पड़ते हैं........
आज के लिए इतना पर्याप्त है :) |
इत्यलम् !
-- स्व. डॉ. पं. अशोकशर्मात्मजअलंकार