Saturday, September 16, 2017

सुभाषित अष्टादशपुराणेषु.... संस्कृत से अर्थ


सुभाषित के बहाने


अष्टादशपुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयं ।
परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥

सामान्य अर्थ नहीं, संकेत और जानकारी दूंगा | अपने आप समझिये, आखिर हमारी ही बड़ी माँ है | 🙏


  1. एकं, द्वे, त्रीणि, चत्वारि, पञ्च, षट्, सप्त, अष्ट, नव, दश....... अब सोचिये अष्टादश क्या हुआ ? द्वयं क्या हुआ ?
  2. जहां भी शब्द के अंत में "षु" आये, जैसे -पुराणेषु, देशेषु, ब्राह्मणेषु, गृहेषु, एतेषु, नदीषु, वृक्षेषु, बालकेषु, विवाहेषु, रोगेषु तो ये शब्द कि सप्तमी विभक्ति है बहुवचन के लिए, और अर्थ है - शब्द के बहुवचन 'में' जैसे क्रमशः - पुराणों में, देशों में, ब्राह्मणों में, घरों में, इन में, नदियों में, वृक्षों में, बालकों में, विवाहों में, रोगों में इत्यादि |
  3. अब जिस शब्द के अंत में “स्य” मिले वो शब्द षष्ठी विभक्ति और उसका अर्थ होगा सम्बन्ध “का, की, के” जैसे – रामस्य – राम का, रोगस्य- रोग का, बालकस्य – बालक का, व्यासस्य – व्यास का, रामस्य पुस्तकः – राम की किताब, व्यासस्य वचन – व्यास का वचन, पुस्तकस्य पृष्ठः – पुस्तक का पेज | आशा है समझ आ गया होगा |
  4. अब श्लोक की पहली पंक्ति दुबारा पढ़िए और अपने आप अर्थ लगाइए |
  5. अब दूसरी पंक्ति – “आय” जिस शब्द के अर्थ में आये तो समझिये, “के लिए”, चतुर्थी विभक्ति | जैसे – रामाय – राम के लिए (राम को), भैरवाय – भैरव के लिए (भैरव को), वृक्षाय जलं – वृक्ष के लिए जल (वृक्ष को जल), गृहाय – घर के लिए (घर को) | गृहाय धनं – घर के लिए धन, देवाय नमः – देवता को नमस्कार, पुण्याय – पुण्य के लिए, पापाय – पाप के लिए |
  6. अब दूसरी पंक्ति को पुनः पढ़िए और अर्थ निकालिए | “परपीडन” – अर्थ समझने में ज्यादा देर नहीं लगेगी |

देखिये मुझ से shortcuts की आशा न करिए, तनिक सी मेहनत कीजिये | संस्कृत बड़ी माँ है, आशीर्वाद देगी |

Wednesday, May 31, 2017

बड़मावस के बहाने !!

बड़मावस के बहाने !!

सुबह ही पता लगा आज बड़मावस है, पत्नी जी बोलीं कि बड़ की पूजा करनी है | हमने सुझाया कि चलो मंदिर चलते हैं, शायद कहीं हो | अब इस शहर में ज्यादातर मंदिर नए ही बने हैं और उन पर जैसे तैसे छोटा सा कोई बड़ का पौधा लगा दिया गया है | इन छोटे पौधों पर भक्त लोगों की अपरम्पार कृपा बरसती रहती है और ये पौधे पेड़ अक्सर नहीं बन पाते हैं |

फिर सोचा क्यों न बड़ की डाल ले आई जाए, एक क्या 4-6 ले आयें तो कईयों का भला हो जाये, 2-3 पेड़ पता थे जो 5-6 किमी की रेंज में थे | तो स्कूटी ले बेटे को साथ ले निकल लिए बड़ की डाल लेने के लिए | रास्ते में 2-3 ग्रामीण महिलाओं को हाथ में डोल पकड़े देखा तो सोचा कि इनसे ही पूछ लिया जाये कहीं आस-पास में ही हो तो | महिलाओं का पहला ग्रुप तो नहीं बता पाया पर एक दूसरे ग्रुप ने बताया कि यहीं पास में पेड़ हैं | उनके इंगित किये रास्ते पर गए तो ठीक ठाक से 2 पेड़ मिल गए, बेटे को बोला की बाउंड्री कूद कर जाए और 5-6 डंडी तोड़ लाये | बेटे जी थोड़े नाजुक हैं तो उन्हें ऐसा करना अच्छा नहीं लगा |

खैर 4-6 डाल घर ले आये, हाथों-हाथ पड़ौसियों को भी पुण्य लाभ मिल गया और पूजन का इंतजाम कर लिया |



लेकिन अब मन में सवाल आ चुका था.......और मुझे पता है कई नाम से छद्म पंथनिरपेक्ष, वैज्ञानिक, प्रगतिवादी, सिविलाइस्ड लोगों का भी यही सवाल होगा | सवाल है - हम (सनातन धर्मी) पेड़ की पूजा करते हैं या उन्हें मारते हैं ??

तो इस से जुड़े कुछ चिंतन बिंदु -
  1. पहली और बेसिक बात - सनातन धर्मी किस को पूजते और देवता मानते हैं - गाय, पत्थर, पहाड़, सूर्य, चन्द्रमा, सभी ग्रह, क्षुद्र ग्रह, धरती, कुत्ता, पेड़, नदी, पानी, वृद्ध, कन्या, शिशु, स्त्री, गुरु, पुरोहित, अग्नि, पुस्तक, लेखनी आदि.... आदि.... इत्यादि......अब बताएं कि वो इन सब को नष्ट करने के लिए पूजते हैं ? इससे बड़ा प्रकृति-प्रेम का उदाहरण कहीं और मिलेगा क्या ?? अरे गेंहू, चावल, दूध जमीन पर गिर जाए तो उसे भी बेकार नहीं होने देते | मैंने कितने ही किसान, ग्रामीण देखे हैं जो दूध गिर जाए, चावल गिर जाए तो एक-एक बूँद, एक-एक दाना उठा लेंगे |
  2. आज का आदमी महान आलसी, अलमस्त, संसार से कटा हुआ, हमेशा शॉर्टकट ढूँढने वाला, जल्दी करोड़पति बन जाना चाहने वाला, बिना कर्म के भाग्य में सब कुछ पाना अपना हक़ समझने वाला है, ये सब बिना किसी जिम्मेदारी के | सनातन धर्म को मानने वाले भी कोई अपवाद नहीं हैं, और इन दुर्गुणों के घर हैं | इतने पर भी भारतीय जनमानस में और इनके समाज में ये सभी दुर्गुण हेय ही माने जाते हैं और लोग खुले में इन्हें नहीं स्वीकारते |
  3. उपरोक्त कलियुगीन दुर्गुणों के कारण बड़ के पेड़ तक जा कर उसकी पूजा करना आलस्यवश दुष्कर प्रतीत होता है और उसकी डाली ला कर घर में पूजा करना सरल, अतएव डाली तोड़ पूजा चल रही है | यह वास्तव में एक विकृती है |
  4. इन्हीं उपरोक्त दुर्गुणों के सम्मिलित प्रभाव से पेड़ों की संख्या और जनसंख्या का अनुपात बहुत विकृत हो गया है अतः पेड़-पौधे ढूंढें नहीं मिलते, मिलते भी हैं तो लोग जानते ही नहीं की ये बड़ है, ये पीपल है, ये कत्था है, ये जामुन है |
  5. अब नगर, महानगर से थोड़ा बाहर निकलें तो #2, #3, #4 अभी भी कम प्रभावी हैं और बहुसंख्य भारतीय जन इन दुर्गुणों से अपेक्षाकृत रूप से कम प्रभावित है | अतः वहां अभी भी बड़ की पूजा बड़ पर जा कर ही होती है 💓 |
अतः नगर-महानगर में रहने वाले कलियुगीन दुर्गुणों मेंआकण्ठ डूबे हुए सनातन धर्मी को नजीर न मानें, जरा लोक का भ्रमण करें और तब सनातन पर उंगली उठायें |

एक शिक्षा और सलाह : कृपया जन-वृक्ष के अनुपात को सुधारने के लिए योगदान करें, पेड़ लगाएं | सजावटी पौधे लगाना वृक्षारोपण नहीं है, बाकायदा बड़े पेड़ बड़, पीपल, आम, जामुन, कैथ, बेल, इमली लगाएं | फोटो न खिंचे न सही पर पेड़ अवश्य लगाएं |

अंत में जान लीजिये कहाँ क्या है - ये वटवृक्ष भी  -



-अलङ्कारोऽहं


Saturday, May 13, 2017

संस्कृत-संस्कृति पाठ योजना


एक बार मन में विचार आया कि अधुना बच्चों को संस्कृत और संस्कृति के बारे में ज्ञान देने का कोई साधन ही नहीं है | स्कूल में पढ़ाया नहीं जाता और जो पढ़ाया जाता है वह छद्म-पंथ-निरपेक्ष है यानि कि ऋणात्मक हिंदुत्व है जो कि वास्तव में भारतीय संस्कृति की आत्मा है | माँ-बाप को स्वयं ही ज्ञान नहीं है और यदि है तो वे आगे अगली पीढ़ी को देना नहीं चाहते (अन्यान्य कारणों से) | एक पंजाबी बच्ची जब मेरे पास पढ़ने आई तो पता चला उसे गुरु गोविन्द सिंह का ही पता नहीं था , कौन थे ? हतभाग्य !! बन्दा वीर बहादुर......?? वासुदेव बलवंत फड़के ??.........उफ्फ


तो फिर किया क्या जाए ? कैसे रास्ता बनाया जाए ? लीजिये प्रस्तुत है संस्कृत-संस्कृति पाठ योजना जो मैं अपने घर पर चला रहा हूँ | बच्चे जल्दी सीखते हैं और आश्चर्यजनक रूप से सीखते हैं -



और ये रहे पाठों की संरचना (बहुत ज्यादा सोचा नहीं है, सोच देर से आती है और आती ही रह जाती है | तात्कालिक रूप से जो मन में आया या बच्चों की इच्छा होती है, उसी के अनुसार पाठ हो जाता है)